विदूषक / विजेन्द्र
मैं उन खजूरो के वन से गुज़रा
जो वर्षो से मेरे इंतजार में था
वे बंजर है
फलहीन
वसंतोत्व के बिना
अपना सिर नबाए हुए
हजारों पर्यटक यहाँ आते है
सिर्फ देखने
चित्र लेने
अंदर की गली अंतड़ियाँ यहाँ से
नही दिखती
न भूख की फटी आँखे
न भयानक डरावना चेहरा
बाड़ से बेघर लोग अभी कहाँ लौटे हैं
मैं अभिनय के अंतिम दौर में हूँ
पहले नायक बना
बाद में खलनायक
विदूषक भीं।
मैंने चाहा दर्शक प्रसन्न होकर
घर लौंटे
खजूरो का वन शांत हैं
ओह.......वो मेरी त्रासदी पर भी हँसे
मेरे कहराने पर
उन्होने तालियाँ बजाईं
वे सच को अभिनय समझते रहे
मेरे व्यंग्य को उन्होने लालसाएँ समझा
विडंबना को सेहत
खजूरों के वन को कई बार
हवा ने झकझोरा
नाटक के अंत में सूत्रधार ज़रूर आयेगा
वह अंत की सूचना देकर
अपनी बात ज़रूर कहेगा
तब तक मैं
विदूषक का अभिनय करता रहूँगा।