भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ठिकाना खोजें / विजेन्द्र
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:36, 11 जनवरी 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजेन्द्र |संग्रह=भीगे डैनों वाल...' के साथ नया पन्ना बनाया)
चलो, अब
हम तुम ठिकाना खोजें
हम दोनों ने
अब तक लम्बी उड़ान भर ली है,
अब खसी लालिमा लिये
सूर्य ढलने को हैं
वृक्षो ने-
अपनी घनी होती छायाएँ
समेट ली हैं।
पृथ्वी हमें
ठहरने को जगह नहीं देती
चहकने को पत्तियोंदार टहनी।
निरभ्र आकाष में
उड़ान पर
हम सदा रह नहीं सकते
आना तो पृथ्वी पर ही हैं।
वृक्ष हम पर
दयालु हैं
जहाँ हम टिक कर
अपनी संतान को
नीड़ बुन सकते हैं।
2006