भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पद 101 से 110 / कन्हैया लाल सेठिया

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:46, 22 जनवरी 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कन्हैया लाल सेठिया |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

101.
सौरम धरती नाक पण
फोवो टांगै कान,
अंतर घालै आंतरो
मूरख बणै सुजाण !

102.
कठै पारखी कूंत दै
नर पींडी रो मोल ?
नारायण आं में फिरै
सोच समझ मुख खौल !

103.
भोगी रै मन भांवतो
रूड़ो पुसब गुलाब,
जोगी साधै कंवळ रो
पण निरलेप सभाव !

104.
गेला भाग्या उजाड़ में
गेला पूग्या गांव,
रूंखां उळझी तावड़ी
बणी मतै ही छांव !

105.
पुसब रूप धरती दियो
सूरज करयो सुरंग,
मै’क फैलसी पून रो
जे करसी सतसंग !

106.
तू मत समझी सूर उग
दियो अंधेरो मार,
चनेक आडो बन्द कर
फेर अंधेरो त्यार !

107.
मन रै घोड़ै पर चढयो
मजळ मान गिगनार,
रास छूटगी हाथ स्यूं
तू क्यां रो असवार ?

108.
डूंगर पसरयो कोस में
सिखर अणी रै मान,
छोड भीड़ रै मोह नै
जे बणणो भगवान !

109.
घड़ मूरत सेवै पछै
आप घड़ाईदार,
इयां भगत रो दास है
परतख सिरजणहार !

110.
सूग करै संसार स्यूं
बीं रै हियै विकार,
भासै निरमळ दीठ नै
ओ सत रो दरबार !