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रात / केदारनाथ अग्रवाल
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दिन हिरण-सा चौकड़ी भरता चला,
धूप की चादर सिमट कर खो गई,
खेत, घर, वन, गाँव का
दर्पण किसी ने तोड़ डाला,
शाम की सोना-चिरैया
नीड़ में जा सो गई,
पेड़-पौधे बुत गए जैसे दिये,
केन ने भी जांघ अपनी ढाँक ली,
रात है यह रात, अन्धी रात,
और कोई कुछ नहीं है बात !