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सतवाणी (22) / कन्हैया लाल सेठिया

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211.
मन रै लांरै जीव क्यूं
खांतो फिरै भचीड़ ?
चावै मिलणो साच स्यूं
काढ आंख स्यूं भीड़,

212.
कठै कठै कानी गयो
ओ सरभंगी जीव ?
नरग सरग भमतो फिरै
करमां बंध्यो कुजीव,

213.
एक बुझाई सिलगगी
दूजी तिसणां और,
राख हुसी जद बरससी
अनुकंपा रा लोर,

214.
मूढ़ किस्या दारसण हुवै
फिरयां देवरा धाम ?
दरसण कर निज रा हुवै
ओ मनड़ो निष्काम,

215.
बंधण मोटो राग रो
ज्यावै गज बळ थाक,
तिसणां त्याग्यां ओ झरै
जिंयां खिरै फळ पाक,

216.
जाबक सुरड़ी निसरगी
दी क्यूं सित्या नाख,
चुरा कांकरो दी गमा
हीरां बरगी साख,

217.
घाणी रो नारो बण्यो
सबद घाल ली नाथ,
मुगत हुसी जद चेतणा
असबद आसी हाथ,

218.
उठा दीठ देखूं जठै
बठै छोडूं लेऊँ हुई
दोगा चिंती लार ?

219.
सहज उगै बणज्या फसल
तुरत झूठ रा बीज,
उगै न हीरो साच रो
चावै अमरित सींच,

220.
सिंझ्यां जका बिछावणां
दिन उगियां बै पूर,
सरब जिकारा गरज रा
गोगो बाजै धूळ,