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भव री बाट / राजू सारसर ‘राज’

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ढळलै दिन
सूरज री किरणां पडै
पळपळाट करै सुरजी
पीळांस बधै
उपरां कर उडती
पांखीड़ां री डार
तणकावै भावां रा तार
मन आकळ बाकळ होय’र
कैदीडै पांखी ज्यूं फड़फड़ावै
अेक ई सांस उड’र
बठै जावणो चावै।
धंवर सो धुंधळास
छायौड़ो दीखै च्यारूंमेर
निजरां री पण टेर
तीखै तीरां ज्यूं गैरी बैठणी चावै
उण माटी रा गूंगा सबद
बांचणां चावै।
वो म्हांनै बुलांवतों लखावै
उण कनैं है कोई दरसण
वो बतोवणांे चावै
हो सकै कोई गूढ सवाल
म्हासूं पूछणों चावै।
म्हैं सोचूं,
काईं-काईं मिल सकै है बठै
उतार चढाव, रीत गीत
जीवण-मरण
स्सो कीं, कै कीं नीं
म्हैं सोचूं, पण साच जाणूं नीं।