Last modified on 28 फ़रवरी 2008, at 09:03

वन की प्रकृति वामा / केदारनाथ अग्रवाल

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:03, 28 फ़रवरी 2008 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

हास-हर्ष-हुलास की यह हरी जाया

फूल-फल से, रूप-रस से भरी काया

पात-पात प्रकाश-दीपित प्रकृति वामा

वात-वास-विलास-जीवित सुरति श्यामा

हर रही दव, कर रही संभूत माया

परस अपरस-विरस पर कर रही दाया

जठर जड़ भी चलित चित चैतन्य होते

देखते ही चूमते छवि, धन्य होते

गमक अग का मदन-मद-सा विपुल बहता

पवन पथ का कथन मधु का अतुल कहता

अयन छवि के नयन अन्तर्नयन खुलते

वनज-वन के सदल सम्पुट वदन खुलते ।