Last modified on 17 जनवरी 2008, at 20:05

कितनी नावों में कितनी बार (कविता) / अज्ञेय

Sumitkumar kataria (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 20:05, 17 जनवरी 2008 का अवतरण (संग्रह का लिंक डाला है)

कितनी नावों में कितनी बार

कितनी दूरियों से कितनी बार

कितनी डगमग नावों में बैठ कर

मैं तुम्हारी ओर आया हूँ

ओ मेरी छोटी-सी ज्योति !

कभी कुहासे में तुम्हें न देखता भी

पर कुहासे की ही छोटी-सी रुपहली झलमल में

पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मंडल ।

कितनी बार मैं,

धीर, आश्वस्त, अक्लांत –

ओ मेरे अनबुझे सत्य ! कितनी बार.....

और कितनी बार कितने जगमग जहाज

मुझे खींच कर ले गये हैं कितनी दूर

किन पराये देशों की बेदर्द हवाओं में

जहाँ नंगे अँधेरों को

और भी उघाड़ता रहता है

एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश –

जिसमें कोई प्रभा-मंडल, नहीं बनते

केवल चौधिंयाते हैं तथ्य, तथ्य—तथ्य—

सत्य नहीं, अंतहीन सच्चाइयाँ....

कितनी बार मुझे

खिन्न, विकल, संत्रस्त –

कितनी बार !