भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
थारै पछै (3) / वासु आचार्य
Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:27, 26 फ़रवरी 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वासु आचार्य |संग्रह=सूको ताळ / वास...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
जमींदौट हुयग्या
बै सिगळै पल
बै सिगळै छिन
जका फूला री
मैहक सागै पखैरूआं री
चैहक सागै
पेड़ा रै पत्ता मांय
गूंजता हा
जीवण रो संगीत बण
जाणै पून रो’ ई
गळौ मुसग्यौ
सूरज नीं रैयौ-सूरज
गुड़कतौ-गौता खावतौ रैयग्यौ
डौळ बायरो
माटी रो लौधौ
ठंडोटीप
तैजहीण
जमींदौट हुयग्यौ-
सौ की
तद‘ई तो
कोई मसाणी राख
औढयै आभै मांय
नीं दीखै-कोई चिड़कली
चूंच मांय तिणको लियौड़ी
पांखां मांय पून भरती
अर म्है
हर पल
हर छिन्न
हुवतो जाय रैयौ हूं
अेक भंभाड़ मारतौ कुवौ
अेक गै रौ सरणाटो
थारै पछै
था...रै पछै