Last modified on 17 जनवरी 2008, at 20:07

निरस्त्र / अज्ञेय

Sumitkumar kataria (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 20:07, 17 जनवरी 2008 का अवतरण (संग्रह का लिंक डाला है)

कुहरा था,

सागर पर सन्नाटा था :

पंछी चुप थे ।

महाराशि से कटा हुआ

थोड़ा-सा जल

बन्दी हो

चट्टानों के बीच एक गढ़िया में

निश्चल था--

पारदर्श ।


प्रस्तर-चुम्बी

बहुरंगी

उद्भिज-समूह के बीच

मुझे सहसा दीखा

केंकड़ा एक :

आँखें ठण्डी

निष्प्रभ

निष्कौतूहल

निर्निमेष ।


जाने

मुझ में कौतुक जागा

या उस प्रसृत सन्नाटे में

अपना रहस्य यों खोल

आँख-भर तक लेने का साहस;

मैंने पूछा : क्यों जी,

यदि मैं तुम्हें बता दूँ

मैं करता हूँ प्यार किसी को--

तो चौंकोगे ?

ये ठण्डी आँखें झपकेंगी

औचक ?


उस उदासीन ने

सुना नहीं :

आँखों में

वही बुझा सूनापन जमा रहा ।

ठण्डे नीले लोहू में

दौड़ी नहीं

सनसनी कोई ।


पर अलक्ष्य गति से वह

कोई लीक पकड़

धीरे-धीरे

पत्थर की ओट

किसी कोटर में

सरक गया ।


यों मैं

अपने रहस्य के साथ

रह गया

सन्नाटे से घिरा

अकेला

अप्रस्तुत

अपनी ही जिज्ञासा के सम्मुख निरस्त्र

निष्कवच,

वध्य ।