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जीवन में खरे नहीं / रमेश रंजक

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कोल्हू के बैल की तरह
घूमते रहे हैं जो एक ही जगह
             लो करने आ गए जिरह।

खुर वही पुजे हैं
तोड़ा है जिसने भी
धरती का बाँझपन
         और सुम वही हैं
         नाप गए बिना नापी
         धरती का आयतन

भीतर तक भरे नहीं
ऊपर से हरे नहीं
लालसा ही अर्थ की
जीवन में खरे नहीं

छूते ही रहे सदा ऊपरी सतह
            लो करने आ गए जिरह
घूमते रहे हैं जो एक ही जगह
            कोल्हू के बैल की तरह ।