रजनीगंधा / जयशंकर प्रसाद
दिनकर अपनी किरण-स्वर्णा से रंजित करके
पहुंचे प्रमुदित हुए प्रतीची पास सँवर के
प्रिय-संगम से सुखी हुई आनन्द मानती
अरूण-राग-रंजित कपोल से सोभा पाती
दिनकर-कर से व्यथित बिताया नीरस वासर
वही हुए अति मुदित विहंगम अवसर पाकर
कोमल कल-रव किया बड़ा आनन्द मनाया
किया नीड़ में वास, जिन्हें निज हाथ बनाया
देखो मन्थर गति से मारूत मचल रहा है
हरी-हरी उद्यान-लता में विचल रहा है
कुसुम सभी खिल रहे भरे मकरन्द-मनोहर
करता है गुंजार पान करके रस मधुकर
देखो वह है कौन कुसुम कोमल डाली में
किये सम्पुटित वदन दिवाकर-किरणाली में
गौर अड़्ग को हरे पल्लवों बीच छिपाती
लज्जावती मनोज्ञ ता का दृष्य दिखाती
मधुकर-गण का पुज्ज नहीं इस ओर फिरा है
कुसुमित कोमल कुंज-बीच वह अभी घिरा है
मलयानिल मदमत्त हुआ इस ओर न आया
इसके सुन्दर सौरभ का कुछ स्वाद न पाया
तिमिर-भार फैलाती-सी रजनी यह आई
सुन्दर चन्द्र अमन्द हुआ प्रकटित सुखदाई
स्पर्श हुआ उस लता लजीली से विधु-कर का
विकसित हुई प्रकाश किया निज दल मनहर का
देखो-देखो, खिली कली अलि-कुल भी आया
उसे उड़़ाया मारूत ने पराग जो पाया
सौरभ विस्तृत हुआ मनोहर अवंसर पाकर
म्लान वदन विकसाया इस रजनी ने आकर
कुल-बालासी लजा रही थी जो वासर में
रूप अनूपम सजा रही है वह सुख-सर में
मघुमय कोमल सुरभि-पूर्ण उपवन जिससे है
तारागण की ज्योति पड़ी फीकी इससे है
रजनी में यह खिली रहेगी किस आशा पर
मधुकर का भी ध्यान नहीं है क्या पाया फिर
अपने-सदृष समूह तारका का रजनी-भर
निर्निमेष यह देख रही है कैसे सुख पर
कितना है अनुराग भरा अस छोटे मन में
निषा-सखी का प्रम भरा है इसके तन में
‘रजनी-गंधा’ ना हुआ है सार्थक इसका
चित्त प्रफुल्लित हुआ प्राप्त कर सौरभ जिसका