भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तूतनख़ामेन के लिए-24 / सुधीर सक्सेना

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:04, 14 जनवरी 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुधीर सक्सेना |संग्रह=काल को भी नहीं पता / सुधीर सक्सेन...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुबारक हो,

कि ख़ूब सोए तुम

तूतन !


गो सोए थे जागने के वास्ते

मुबारक हो

कि हो-हल्ले

और कुदाल, फावड़ों की आवाज़ से भी

नहीं उठे तुम

तुम तूतनखामेन !


मुबारक हो

कि चीर-फाड़ भी

तोड़ नहीं सकी

तुम्हारी नींद

अब क्या ख़ाक जागोगे तुम


फ़िक्र हो

ज़िन्दगी की

तो एक हल्की-सी आहट से

जाग जाया करते हैं

आदमी ।