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वीर बालक / जयशंकर प्रसाद

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भारत का सिर आज इसी सरहिन्द मे
गौरव-मंडित ऊँचा होना चाहता
अरूण उदय होकर देता है कुछ पता
करूण प्रलाप करेगा भैरव घोषणा
पाच्चजन्य बन बालक-कोमल कंठ ही
धर्म-घोषणा आज करेगा देश में
जनता है एकत्र दुर्ग के समाने
मान धर्म का बालक-युगल-करस्थ है
युगल बालकों की कोमल यै मूर्तियां
दर्पपूर्ण कैसी सुन्दर है लग रही
जैसे तीव्र सुगन्ध छिपाये हृदय में
चम्पा की कोमल कलियाँ हों शोभती

सूबा ने कुछ कर्कश स्वर से वेग में
कहा-‘सुनो बालको, न हो बस काल के
बात हमारी अब भी अच्छी मान लो
अपने लिये किवाड़े खोलो भाग्य के
सब कुछ तुम्हें मिलेगा, यदि सम्राट की
होगी करूणा। तुम लोगों के हाथ है
उसे हस्तगत करो, या कि फेंको अभी
किसने तुम्हें भुलाया है ? क्याें दे रहे
जाने अपनी, अब से भी यह सोच लो
यदि पवित्र इस्लाम-धर्म स्वीकार है
तुम लोगों को, तब तो फिर आनन्द है
नहीं, शास्ति इसकी केवल वह मृत्यु है
जो तुमको आशामय जग से अलग ही
कर देगी क्षण-भर में, सोचो, समय है
अभी भविष्यत् उज्जवल करने के लिये
शीघ्र समझकर उत्तर दो इस प्रश्न का’

शान्त महा स्वर्गीय शान्ति की ज्योति से
आलोकित हो गया सुवदन कुमार का
पैतृक-रक्त-प्रवाह-पूर्ण धमकी हुई
शरत्काल के प्रथम शशिकला-सी हँसी
फैल गई मुख पर ‘जोरावरसिंह’ के
कहा-‘यवन ! क्यों व्यर्थ मुझे समझा रहे
वाह-गुरू की शिक्षा मेरी पूर्ण है
उनके चरणों की आभा हृत्पटल पर
अंकित है, वह सुपथ मुझे दिखला रही
परमात्मा की इच्छा जो हो, पूर्ण हो’
कहा घूमकर फिर लघुभ्राता से--‘कहो,
क्या तुम हो भयभीत मृत्यु के गर्त से
गड़ने में क्या कष्ट तुम्हें होगा नहीं’
शिशु कुमार ने कहा--बड़े भाई जहाँ,
वहाँ मुझे भय क्या है ? प्रभु की कृपा से’

निष्ठुर यवन अरे क्या तू यह कह रहा
धर्म यही है क्या इस निर्मय शास्त्र का
कोमल कोरक युगल तोड़कर डाल से
मिट्टी के भीतर तू भयानक रूप यह
महापाप को भी उल्लंघन कर गया
कितने गये जलासे; वध कितने हुए
निर्वासित कितने होकर कब-कब नहीं
बलि चढ़ गये, धन्य देवी धर्मान्धते

राक्षस से रक्षा करने को धर्म की
प्रभु पाताल जा रहे है युग मूर्ति-से
अथवा दो स्थन-पद्म-खिले सानन्द है
ईंटों से चुन दिये गये आकंठ वे
बाल-बराबर भी न भाल पर, बल पड़ा--
जोरावर औ’ फतहसिंह के; धन्य है--
जनक और जननी इनकी, यह भूमि भी

सूबा ने फिर कहा-‘अभी भी समय है-
बचने का बालको, निकल कर मान लो
बात हमारी।’ तिरस्कार की दृष्टि फिर
खुलकर पड़ी यवन के प्रति। वीणा बजी-
‘क्यों अन्तिम प्रभु-स्मरण-कार्य में भी मुझे
छेड़ रहे हो ? प्रभु की इच्छा पूर्ण हो’

सब आच्छादित हुआ यवन की बुद्धि-सा
कमल-कोश में भ्रमर गीत-सा प्रेममय
मधुर प्रणव गुज्जति स्वच्छ होले लगा, ष्
शान्ति ! भयानक शान्ति ! ! और निस्तब्धता !