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सुरभि -चन्दना / प्रतिभा सक्सेना

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ओ, सुरभि-चन्दना,
उल्लास की लहर सी
आ गई तू!


मेरे मौन पड़े प्रहरों को मुखर करने,
दूध के टूटे दाँतों के अंतराल से अनायास झरती
हँसी की उजास बिखेरती,
सुरभि-चन्दना,
परी- सी, आ गई तू!


देख रही थी मैं खिड़की से बाहर-
तप्त, रिक्त आकाश को,
शीतल पुरवा के झोंके सी छा गई तू,
सरस फुहार-सी झरने!
उत्सुक चितवन ले,
आ गई तू!


चुप पड़े कमरे बोल उठे,
अँगड़ाई ले जाग उठे कोने,
खिड़कियाँ कौतुक से विहँस उठीं,
कौतूहल भरे दरवाज़े झाँकने लगे अन्दर की ओर,
ताज़गी भरी साँसें डोल गईं सारे घर में .
आ गई तू!


सहज स्नेह का विश्वास ले,
मुझे गौरवान्वित करने!
इस शान्त-प्रहर में,
उज्ज्वल रेखाओं की राँगोली रचने,
रीते आँगन में!
उत्सव की गंध समाये,
अपने आप चलकर,
आ गई तू!