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सर्वग्रासी. / प्रतिभा सक्सेना

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यह सर्वग्रासी राग !
संपूर्ण वृत्तियों को निज में समाहित कर,
सारी बोधों आच्छादित कर,
वर्तमान से परे खींच ले जाता
अजाने काल-खंडों में .,
धरी रह जाती है चाक-चौबन्द सजगता,
विदग्धता विवश, अवधान भ्रमित,
सारी सन्नद्धता हवा,
और दिशा-बोध खोई मैं!


अचानक रुकी रह जाती हूँ
जहाँ की तहाँ-
सब अनपहचाना,
बेगाना, निरर्थक .
लुप्त दिशा बोध .
वहीं के वहीं,
कौन से आयामों में उतर कर
संपूर्ण चेतना अनायास,
अस्तित्व विलीन !


निर्णय नहीं कर पाती-
कहाँ हूँ!
घेर लेता चतुर्दिक् जो सर्वग्रासी राग
जीने नहीं देता .
कैसी- तो अतीन्द्रियता
डुबा लेती अपने आप में .
जैसे मैं, मैं नहीं,
रह जाए अटकी-सी,
हवाओं में भटकती,
कोई तन्मय तान!