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ब्रेक-अप-8 / बाबुषा कोहली

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"बरसात में रग्बी खेली है कभी ? खेल कर देखना ।"
"उंहू । मुझे नहीं खेलना ।"
नीली-नीली नींद में वो मेरी रग्बी ले कर भागता है । मैं उसके पीछे-पीछे..
पेड़-पहाड़, दरख़्त, नदियाँ, चट्टानें सब के सब खेल में शामिल । वो चकमेबाज़ मुझे पर्वतों की नोक पर गिरा देता है । "मुझे नहीं खेलना । पीठ पर घाव हो गया । ऊँचाइयों की नोक चुभती है । नहीं..नहीं. मुझे नहीं चाहिए ।"
वो मेरे चेहरे पर मिट्टी लपेट देता है. मुझसे लिपट जाता है ।
"ले ! रख ले अपनी रग्बी । ये रग्बी तेरी और तू मेरी, और तू मेरी, और तू मेरी ! "
सब बरसात के खेल हैं । नीला-नीला मौसम गुज़र जाता है ।

जैसे बचपन में किसी ने उसका बैट-बॉल छीन लिया हो
तब से आज तक वो हर चीज़ से खेल रहा है
उल्टी हवा से खेल रहा है आग से खेल रहा है
छोटे से छोटे खेल से पूरा कर लेता है बड़े से बड़ा बदला
बड़ी से बड़ी बात को भी किसी खेल से बड़ा नहीं मानता
खेल सा जीता है जीवन वो खेल खेल में मर जाता है
चौसर बिछा लेता है बड़ी बहर की पक्की चालें चलता है
नाज़ुक ग़ज़लों से खेल लेता है
दाँव पर लगा देता है बेंदी-टीका
कान की बाली को कौड़ी कर देता है
अच्छी लगती हैं उसे डब-डब-सी आँखें
काँच-सी आँखों से वो कंचे खेलता है
छुप जाता है कभी-कभी उलझी लटों के पीछे
पतंग बना कर आसमान में खूब उड़ाता है ख़्वाबों को
कितना खेला छुपन-छुपाई, पकड़म-पकड़ी
सही निशाने तीरंदाज़ी
जज़्बातों की कन्ना-दूड़ी कितना खेला
कभी छुपाया, कभी उछाला बेबस मन को गेंद समझकर कितना खेला
दिल गिल्ली पर क्रोधी डण्डा कितना खेला
छाती पर उँगली रख कर चिड़िया उड़ और तोता उड़ जी भर कर खेला

फिर एक दिन सारे खेल ख़त्म हो ही जाते हैं
खेल-खेल में पंछी उड़ कर बहुत दूर निकल जाते हैं