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प्यार और क़िताब / सुतिन्दर सिंह नूर

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प्यार करने
और क़िताब पढ़ने में
कोई फ़र्क़ नहीं होता

कुछ क़िताबों का हम
मुख्य पृष्ठ देखते हैं
अन्दर से बोर करती है
पृष्ठ पलटते हैं और रख देते हैं।

कुछ क़िताबें हम
रखते हैं सिरहाने
अचानक जब नींद से जागते हैं
तो पढ़ने लगते हैं

कुछ क़िताबों का
शब्द-शब्द पढ़ते हैं
उनमें खो जाते हैं
बार-बार पढ़ते हैं
और आत्मा में बसा लेते हैं

कुछ क़िताबों पर
रंग-बिरंगे निशान लगाते हैं
प्रत्येक पंक्ति पर रीझते हैं
और कुछ क़िताबों के
नाजुक पन्नों पर
निशान लगाने से भी डरते हैं

प्यार करने
और क़िताब पढ़ने में
कोई फ़र्क़ नहीं होता।