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कुछ क्षणिकाएँ / किरण मिश्रा

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1.

मैं बैठी हूँ आज भी
खिजा की बहारों के लिए
तू शायद फिक्रमन्द है रोटी के लिए ।

2.

जब ख़ामोशी में तुम सुनने लगो
पतझर में जब बहार बुनने लगो
नजर आए चाँद आईने जैसा
तब समझना अध्याय पाक मोहब्बत है ये ।

3.

एक शरारा-सा भड़का है दिल में मेरे
कि उसकी तपिश का एहसास हुआ
मैं कहाँ, न मुझे पता
वो कहाँ, न उसे पता ।

4.

समन्दर से यारी बहुत की हमने
पर कही किनारा नज़र नहीं आया
आज इस शहर में हर ग़रीब
मोहब्बत में हारा नज़र आया ।