(मुझे पता है कि अभी ख़ूबसूरती की क़द्र नहीं है। चेहरे की ख़ूबसूरती, विचारों और आरज़ुओं की ख़ूबसूरती, खूबसूरत लिखावट, आँखों और नज़रिए की ख़ूबसूरती, यहाँ तक कि मीठी आवाज़ की ख़ूबसूरती. -- रेहाना जब्बारी)
एक पत्ते की हरी रंगत काँपती है उम्र-भर
कोमल-सी कोई लहर बनती-बिखरती
चाँद की घट-बढ़ जारी रहती है
मानो अस्थिरता नाम के किसी गिलास में आकार लेती हो
पानी से जीवन की लम्बाई-चौड़ाई
शायद ईश्वर भी देखता होगा
पलकों की दूब पर ओस के ठहरने का स्वप्न
सम्भव है नींद न टूटे आजीवन
टूटना मगर, स्वप्न की नियति है
सड़क किनारे गठरी लादे फिरते उस आदमी की तरह
आते-जाते रहते हैं बसन्त या शरद के विक्षिप्त दिन
अभी तो हज़ारों प्रकाशवर्ष दूर है सुबह
धरती के कण्ठ में जाड़ा जमा हुआ है
कोई चीत्कार नसों में कँपकँपा के दुबक जाती है
कैसा अश्लील समय है
कि नदी की हँसी और रूदन का अन्तर भी समझ नहीं आता
पड़ोस के आसमान पर सूर्य पश्चात्ताप की अग्नि में जल रहा है