दो शरीर सन्मुख
हैं दो लहरें कभी-कभी
रात है समुद्र तब
दो शरीर सन्मुख
हैं दो पत्थर कभी-कभी
रात मरुभूमि तब
दो शरीर सन्मुख
हैं दो जड़ें कभी-कभी
गुँथी हुई रात में
दो शरीर सन्मुख
हैं दो चाकू कभी-कभी
रात है चिंगारी छोड़ती
दो शरीर सन्मुख
हैं दो तारे टूटते
रिक्त आकाश में