ये है पहचान एक औरत की
माँ बाहन, बीवी, बेटी या देवी.
अपने आँचल की छाँव में सबको
दे रही है पनाह औरत ही.
दरिया अश्कों का पार करती वो
ज़िंदगी की भंवर में जो रहती.
दुनियाँ वाले बदल गये, लेकिन
एक मैं ही हूँ जो नहीं बदली.
जितनी ऊँची इमारतें हैं ये
मैं तो लगती हूँ उतनी ही छोटी.
बेनकाबों की भीड़ में खोकर
ख़ुद वो पर्दा नशीं नहीं होती.