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जब तुम तड़प कर रोते हो / तुषार धवल

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जीवन हहरा कर धँस जाता है हठात
खिलना भूल जाता है
बदहवास क्षणों के प्रपंच में
कराहती हुई तुम्हारी निरीह रुलाई पर

सृष्टि की कोख से उठता यह रोना तुम्हारा
ब्रह्माण्ड भर में कहर जाता है

दर्द से कराहती इस निरीह नन्ही पुकार पर
कैसे स्थिर रहा जाए बेटा !
वह धीर-गम्भीर कोई और होगा
लेकिन जब रहा होगा
वह पिता नहीं रहा होगा
माँ तो बिल्कुल ही नहीं

एक करवट
एक कराह
और जीवन के मुगालते बेपर्दा हो जाते हैं
मैं सियाचीन में तड़पते उस बाप को सुनता हूँ
जिसकी जमती हुई हथेलियों पर बन्दूक थमी है
कान सरहद पर चौकस हैं
और कलेजे में घर से आए फ़ोन की
उसी लाचार ख़बर वाली घण्टी
लगातार बज रही है
मैं जेल में बन्द उसी बाप-सा होता हूँ
उतना ही मजबूर जितना पेशावर के
वे सभी बाप रहे होंगे
सोमालिया नाइजीरिया या इराक में
कहीं मुसलमान कहीं ईसाई और कहीं यहूदी होने
के बोझ तले
जीना कोहराम बन गया है
और मेरे कन्धे कितने अशक्त हैं
जो रोक नहीं सकते तुम्हारे रोने को
पेट में उठती इन बेरहम मरोड़ों को
जो बाहर भी मरोड़ रही हैं मुझे
हम सबको
यहाँ वहाँ दुनिया के हर कोने में
यह मरोड़ कैसा उठा हुआ है
कि धुआँ है और बारूद झर रहा है आकाश से
उन सूने कन्धों और उजाड़ कलेजों की बेबसी
यहाँ आज यह बाप तुम्हारा ढो रहा है
जब तुम बेपनाह रोए जा रहे हो

रोते एक तुम हो
और दुनिया भर की हजारों मासूम जानें
मुझमें फिर से तड़प कर तुम्हारे साथ
रो पड़ती हैं !