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वे दो दाँत-तनिक बड़े / ज्ञानेन्द्रपति

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वे दो दाँत-तनिक बड़े जुड़वाँ सहोदरों-से अन्दर-नहीं, सुन्दर पूर्णचन्द्र-से सम्पूर्ण होंठों के बादली कपाट जिन्हें हमेशा मूँदना चाहते और कभी पूरा नहीं मूँद पाते हास्य को देते उज्ज्वल आभा मुस्कान को देते गुलाबी लज्जा लज्जा को देते अभिनव सौन्दर्य वह कालिदास की शिखरिदशना श्यामा नहीं- अलकापुरीवासिनी लेकिन हाँ, साँवली गाढ़ी गली पिपलानी कटरा की मंजू श्रीवास्तव हेड क्लर्क वाई. एन. श्रीवास्तव की मँझली कन्या जिसकी एक मात्र पहचान-नहीं, मैट्रिकुलेशन का प्रमाणपत्र-नहीं न होमसाइंस का डिप्लोमा न सीना-पिरोना, न काढ़ना-उकेरना न तो जिसका गाना ग़ज़लें, पढ़ना उपन्यास- वह सब कुछ नहीं बस, वे दो दाँत-तनिक बड़े सदैव दुनिया को निहारते एक उजली उत्सुकता से दृष्टि-वृष्टियों से धुँधले ससंकोच दृष्टियाँ जो हों दुष्ट तो भी पास पहुँचकर कौतुल में निर्मल हो आती हैं

वे दो दाँत-तनिक बड़े डेंटिस्ट की नहीं, एक चिन्ता की रेतियों से रेते जाते हैं एकान्त में खुद को आईने में निरखते हैं चोर नज़रों से विचारते हैं कि वे एक साँवले चेहरे पर जड़े हैं कि छुटकी बहन के ब्याह के रास्ते में खड़े हैं वे काँटे हैं गोखुरू हैं, कीलें हैं वे चाहते हैं दूध बनकर बह जायें शिशुओं की कण्ठनलिकाओं में वे चाहते हैं पिघल जायें, रात छत पर सोये, तारों के चुम्बनों में

रात के डुबाँव जल में डूबे हुए वे दो दाँत-तनिक बड़े-दो बाँहों की तरह बढ़े हुए धरती की तरह प्रेम से और पीड़ा से फटती छातीवाले- जिस दृढ़-दन्त वराहावतार की प्रतीक्षा में हैं वह कब आयेगा उबारनहार गली पिपलानी कटरा के मकान नम्बर इकहत्तर में शहर के बोर्डों-होर्डिंगों पोस्टरों-विज्ञापनों से पटे भूलभुलैया पथों और व्यस्त चौराहों और सौन्दर्य के चालू मानदण्डों को लाँघता आयेगा न ? कभी तो !