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शाम / देवेन्द्र कुमार
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कन्धे तक झुक आई
शाम ।
साये में पेड़ कुछ खड़े
दिन के नखरे
बड़े-बड़े
अँधेरा कुडुक,
आई शाम ।
नन्हा-मुन्ना कोई ख़्वाब
होठों से तोड़ता गुलाब
रटता है
बाम, बाम, बाम ।
एक मानसून अनूठी
सागर में, देह में उठी
गहरे कौतुक
आई शाम ।