भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रुला के गया सपना मेरा / शैलेन्द्र
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:10, 3 अगस्त 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= शैलेन्द्र |संग्रह=फ़िल्मों के लि...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
रुला के गया सपना मेरा
बैठी हूँ कब हो सवेरा
वही है गमे दिल वही है चन्दा-तारे
हाय, रहे हम बेसहारे
आधी रात वही है और हर बात वही है
फिर भी आया न लुटेरा
बैठी हूँ कब हो सवेरा
रुला के गया सपना मेरा
कैसी ये ज़िन्दगी
कि साँसों पे हम डूबे
कि दिल डूबा हम डूबे
एक दुखिया बेचारी इस जीवन से हारी
उस पर ये गम का अन्धेरा
रुला के गया सपना मेरा
बैठी हूँ कब हो सवेरा