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वाणी की दीनता / भवानीप्रसाद मिश्र
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वाणी की दीनता
अपनी मैं चीन्हता !
कहने में अर्थ नहीं
कहना पर व्यर्थ नहीं
मिलती है कहने में
एक तल्लीनता !
आस पास भूलता हूँ
जग भर में झूलता हूँ
सिन्धु के किनारे जैसे
कंकर शिशु बीनता !
कंकर निराले नीले
लाल सतरंगी पीले
शिशु की सजावट अपनी
शिशु की प्रवीनता !
भीतर की आहट भर
सजती है सजावट पर
नित्य नया कंकर क्रम
क्रम की नवीनता !
कंकर को चुनने में
वाणी को बुनने में
कोई महत्व नहीं
कोई नहीं हीनता !
केवल स्वभाव है
चुनने का चाव है
जीने की क्षमता है
मरने की क्षीणता !