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ज़िन्दगी प्रश्न करती रही / राकेश खंडेलवाल

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ज़िन्दगी प्रश्न करती रही नित्य ही
ढूँढ़ते हम रहे हल कोई मिल सके
हर कदम पर छलाबे रहे साथ में
रश्मि कोई नहीं साथ जो चल सके

कब कहाँ किसलिये और क्यों, प्रश्न के
चिन्ह आकर खड़े हो गये सामने
सारे उत्तर रहे धार में डूबते
कोई तिनका न आगे बढ़ा थामने
दिन तमाशाई बन कर किनारे खड़े
हाशिये पर निशायें खड़ी रह गईं
और हम याद करते हुए रह गये
सीख क्या क्या हमें पीढ़ियां दे गईं

तेल भी है, दिया भी न बाती मगर
दीप्त करते हुए रोशनी जल सके

बस अपरिचित पलों की सभायें लगीं
जिनसे परिचय हुआ वे चुराते नजर
सारे गंतव्य अज्ञातवासी हुए
पांव बस चूमती एक पागल डगर
हो चुकी,गुम दिशायें, न ऊषा जगी
और पुरबाई अस्तित्व को खो गई
सांझ अनजान थी मेरी अँगनाई से
एक बस यामिनी आई,आ सो गई

हैं प्रहर कौन सा, छटपटाते रहे
एक पल ही सही, कुछ पता चल सके

कामनायें सजीं थीं कि ग्वाले बनें
हम बजा न सके उम्र की बाँसुरी
गीत लिख कर हमें वक्त देता रहा
किन्तु आवाज़ अपनी रही बेसुरी
द्वार से हमने मधुमास लौटा दिया
और उलझे रहे स्वप्न के चित्र में
अपने आंगन की फुलवाड़ियां छोड़ कर
गंध खोजा किये उड़ चुके इत्र में

अब असंभव हुआ जो घिरा है हुआ
यह अंधेरा कभी एक दिन ढल सके