भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आज फिर गाँव जाके आया हूँ / कैलाश मनहर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:50, 18 अगस्त 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कैलाश मनहर |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGha...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
आज फिर गाँव जाके आया हूँ ।
सब से नज़रें चुराके आया हूँ ।
जिस की देहरी पे मेरा काबा है,
मैं वहीं सिर झुका के आया हूँ ।
सुखा रहा था जिसे वक़्त अपनी आँखों से,
वो एक बूँद, नदी में गिरा के आया हूँ ।
तुझे भी रेत से है प्यार बहुत जानता हूँ,
मैं अपनी रूह उसी में छुपाके आया हूँ ।