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अनुभव-1 / सुकान्त भट्टाचार्य
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अवाक् पृथ्वी । अवाक् कर दिया तुमने ।
जन्म से ही देखता हूँ क्षुब्ध स्वदेश भूमि ।
अवाक् पृथ्वी । हम लोग हैं पराधीन
अवाक्, कितनी तेज़ी से जमा हो रहा है,
क्रोध दिन-ब-दिन
अवाक् पृथ्वी । अवाक् करते हो तुम, और भी
जब देखता हूँ इस देश में सिर्फ़ होता है मृत्यु का ही कारोबार ।
हिसाब का बही-खाता जब भी लिया है हाथों में
देखा है सिर्फ़ लिखा हुआ रक्त का ही ख़र्च उसमें,
इस देश में जन्म लेकर सिर्फ़
पदाघात ही मिला,
अवाक् पृथ्वी । सलाम, तुझे सलाम ।
१९४०
मूल बंगला से अनुवाद : मीता दास