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लंगड़ा वक़्त / मुकेश चन्द्र पाण्डेय

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मेरी लिखी कविताओं में वक़्त लंगड़ा सिद्ध होगा,
घड़ियाँ दम तोड़ चुकी होगीं व सुईयां घायल,
मेरा एक मात्र उद्देश्य १२ अंकों को "मुक्त" करवाना है।
मेरी फिल्मों के क्रेडिट्स में
नायक का नाम सबसे अंत में प्रकाशित होगा
और वह अंत तक एक विवश व्यक्तित्व होगा,
अंतत: सभी फ़िल्में बिना "क्रमश:" के ही समाप्त हो जाएँगी।

मेरी स्मरण-शक्ति सशक्त होगी
परन्तु मेरी सूचनाएँ खोखली,
व सूटकेस निपट खाली।
दर्शन कि किताबें रट रट कर
मैं राजनीति पर समीक्षाएँ लिखूंगा,
व चै गुवेरा कि टी-शर्ट पहन कर
क्रिकेट मैच देखने जाऊँगा।

देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाये रखने
में मेरा योगदान उल्लेखनीय होगा,
व मैं दुनिया का वह एक मात्र अमीर कहलाऊंगा
जिसकी बनियान ठीक बीच से फटी होगी
व जहाँ से गर्द भरी नाभि व सिकुड़ा पेट उभर आएगा।

मेरा समाजवाद नारी सशक्तिकरण
की दिशा में कारगर साबित होगा,
उसे ईमानदारी से बलात्कारी खुले आम चलाएंगे।
प्रजातंत्र अराजकता से भरा होगा
व तानाशाही अपने चरम पर होगी
और हर पांच साल में सबसे योग्य तानाशाह के चयन
हेतु मतदान का प्रावधान होगा।

मेरे दोनों अंगूठे जूतों से बगावत कर
बाहर निकल आयेंगे
और मैं जहाँ भी लिखूंगा "शी/शा"
वो शब्द चटक जायेंगे।
मेरा बुद्ध ज्ञानी होगा
परन्तु रावण उससे बड़ा पंडित,
मैं किस्मत के भरोसे
अपने कर्मों के खिलाफ धरने पर बैठ जाऊँगा।

मैं जानता हूँ मेरा भविष्य अंधकारमय होगा व
दुनिया के किसी भी इतिहास में
मेरा नाम दर्ज़ नहीं किया जायेगा,
परन्तु क्रांति से मेरा अभिप्राय सिर्फ इतना भर है
कि अतीत से अब तक मेरी उम्मीदें शेष हैं,

और इसीलिए मेरी एक तरफ़ा प्रेम पर भी पूर्ण आस्था है,
क्योंकि वह स्थिति अलगाव के खतरे से "मुक्त" होती है।