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जीवन भर वे ही रोते हैं / मधुसूदन साहा

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जो अवसर को खो देते हैं,
जीवन भर वे ही रोते हैं।
समय सभी के घर जाता है,
दरवाजे़ पर देता दस्तक।
पर जो बैठे रहते घर में,
दोनों हाथों थामे मस्तक।

असमंजस में पड़कर वे ही,
जीवन में सब कुछ खोते हैं।

भाग्य और किस्मत की बातें,
कर्मठ नहीं किया करते हैं,
अपने कर्मों के प्रकाश से
अँधियारे को वे हरते हैं।

फसलें वे ही काटा करते,
ठीक समय पर जो बोते हैं।

जीवन-पथ में आने वाली
हँसकर हर आँधी से लड़ना,
मेहनत के बल पर ही केवल
उन्नति की चोटी पर चढ़ना।

कुल के सभी कलंक भगीरथ,
बनकर बच्चे ही धोते हैं।

-साभार: पराग, फरवरी, 1978