भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जीवन भर वे ही रोते हैं / मधुसूदन साहा
Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:42, 5 अक्टूबर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मधुसूदन साहा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
जो अवसर को खो देते हैं,
जीवन भर वे ही रोते हैं।
समय सभी के घर जाता है,
दरवाजे़ पर देता दस्तक।
पर जो बैठे रहते घर में,
दोनों हाथों थामे मस्तक।
असमंजस में पड़कर वे ही,
जीवन में सब कुछ खोते हैं।
भाग्य और किस्मत की बातें,
कर्मठ नहीं किया करते हैं,
अपने कर्मों के प्रकाश से
अँधियारे को वे हरते हैं।
फसलें वे ही काटा करते,
ठीक समय पर जो बोते हैं।
जीवन-पथ में आने वाली
हँसकर हर आँधी से लड़ना,
मेहनत के बल पर ही केवल
उन्नति की चोटी पर चढ़ना।
कुल के सभी कलंक भगीरथ,
बनकर बच्चे ही धोते हैं।
-साभार: पराग, फरवरी, 1978