भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुक्का / बालकृष्ण गर्ग
Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:58, 6 अक्टूबर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बालकृष्ण गर्ग |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
तड़बड़ बजता ताशा,
मीठा लगे बताशा।
मार करारा झापड़,
तोड़ा हमने पापड़।
फड़-फड़ उड़े दुपट्टा,
मारे चील झपट्टा।
छत पर बोले कौआ,
उड़े गगन कनकौआ।
भिन्नाता है मच्छर,
बोझा ढोता खच्चर।
सट-सट लगता कोड़ा,
सरपट दौड़े घोड़ा।
बैठ कार में कुत्ता,
पहुँच गया कलकत्ता।
मेरी प्यारी बिल्ली,
देख चुकी है दिल्ली।
मार तुकों में मुक्का,
बन जाएगा ‘तुक्का’!