सुदामा पाण्डे का प्रजातंत्र (एक) / धूमिल
सेर भर कबाब हो एक अद्धा शराब हो नूरजहाँ का राज हो ख़ूब हो-- भले ही ख़राब हो
- --(एक लोकगीत)
भेंट
कल सुदामा पांड़े मिले थे
हरहुआ बाज़ार में । ख़ुश थे । बबूल के
वन में वसन्त से खिले थे ।
फटकारते हुए बोले, यार ! ख़ूब हो
देखते हो और कतराने लगते हो,
गोया दोस्ती न हुई, चलती-फिरती हुई ऊब हो
आदमी देखते हो, सूख जाते हो
पानी देखते हो गाने लगते हो ।
वे ज़ोर से हँसे । मैं भी हँसा ।
संत के हाथ--बुरा आ फँसा
सोचा--
उन्होंने मुझे कोंचा । क्या सोचते हो ?
रात-दिन
बेमतलब बवंडर का बाल नोचते हो
ले देकर एक अदद
चुप हो ।
वक़्त को गंजेड़ी की तरह फूँकते रहे हो
चेहरे पर चमाईन मूत गई है । इतनी फटकार
जैसे वर्षों से अपनी आँखों में थूकते रहे हो
अरे यार, दुनिया में क्या रखा है ?
खाओ-पियो, मज़ा लो
विजयी बनो--विजया लो
रंगरती
ठेंगे पर चढ़े करोड़पति ।