भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुदामा पाण्डे का प्रजातंत्र (एक) / धूमिल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:53, 4 फ़रवरी 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धूमिल |संग्रह = सुदामा पाण्डे का प्रजातंत्र / धूमिल }} स...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सेर भर कबाब हो एक अद्धा शराब हो नूरजहाँ का राज हो ख़ूब हो-- भले ही ख़राब हो

--(एक लोकगीत)


भेंट


कल सुदामा पांड़े मिले थे

हरहुआ बाज़ार में । ख़ुश थे । बबूल के

वन में वसन्त से खिले थे ।

फटकारते हुए बोले, यार ! ख़ूब हो

देखते हो और कतराने लगते हो,

गोया दोस्ती न हुई, चलती-फिरती हुई ऊब हो

आदमी देखते हो, सूख जाते हो

पानी देखते हो गाने लगते हो ।

वे ज़ोर से हँसे । मैं भी हँसा ।

संत के हाथ--बुरा आ फँसा


सोचा--

उन्होंने मुझे कोंचा । क्या सोचते हो ?

रात-दिन

बेमतलब बवंडर का बाल नोचते हो

ले देकर एक अदद

चुप हो ।


वक़्त को गंजेड़ी की तरह फूँकते रहे हो

चेहरे पर चमाईन मूत गई है । इतनी फटकार

जैसे वर्षों से अपनी आँखों में थूकते रहे हो

अरे यार, दुनिया में क्या रखा है ?

खाओ-पियो, मज़ा लो

विजयी बनो--विजया लो

रंगरती

ठेंगे पर चढ़े करोड़पति ।