Last modified on 14 अक्टूबर 2015, at 05:50

आज की ख़ुद्दार औरत / सुशीला टाकभौरे

Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:50, 14 अक्टूबर 2015 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

तुमने उघाड़ा है
हर बार औरत को
मर्दो
क्या हर्ज़ है
इस बार स्वयं वह
फेंक दे परिधानों को
और ललकारने लगे
तुम्हारी मर्दानगी को
किसमें हिम्मत है
जो उसे छू सकेगा?

पिंजरे में बन्द मैना को
क़िस्सागोई पाठ पढ़ाते रहे
लाज-शर्म का हिसाब लगाते रहे
तालाबन्दी का हक़ जताते रहे

जो तुमने पाया वह
तुम्हारा सामर्थ्य
नारी ने स्वयं कुछ किया
तो बेहयाई
अब बताओ
तुम्हेँ क्यों शर्म नहीं आयी?
गल चुकीं
बहुत मोमबत्तियाँ
आज
वह जंगल की आग है
बुझाए न बुझेगी
बन जाएगी
आग का दरिया

उसके नये तेवर पहचानो
श्रद्धा शर्म दया धर्म
किसमें खोजते हो?
सँभालो अपने
पुराने ज़ेवर
थान के थान
परिधान

आज ये ख़ुद्दार औरत
नंगेपन पर उतरकर
परमेश्वर को लजाएगी
पुरुष के सर्वस्व को नकारकर
उसे नीचा दिखाएगी!!