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परहेज / किरण अग्रवाल
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मैं सांस लेना चाहती हूं करवट बदलती
इस दुनिया में
मैं भी सदियों की कैद से मुक्त हो
खोल देना चाहती हूं
अपने पंख
मैं उन आदमियों की स्याह बस्तियों में
जाना चाहती हूं
जिनकी परछाई से भी दूर रहे
हमारे पुरखे
जो खेतों में हमारे लिए
पैदा करते रहे अनाज
जो हमारे घर-बाहर को
साफ-सुथरा बनाते रहे
जो हमारे देवी-देवताओं को
तराशते रहे हमारे लिए
लेकिन जिनके मुंह पर बंद होते रहे
हमारे मंदिरों के पट
मैं उनके पास बैठ उनसे
पूछना चाहती हूं
उन्हें तो मेरी परछाई से
कोई परहेज नहीं...?