Last modified on 6 फ़रवरी 2008, at 22:12

गोबर पाथती बुढ़िया / अनिल कुमार सिंह

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:12, 6 फ़रवरी 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनिल कुमार सिंह |संग्रह=पहला उपदेश / अनिल कुमार सिंह }} ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

इस गोबर पाथती बुढ़िया को
हमारे बारे में कुछ नहीं मालूम !

धीरे-धीरे उतरती है शाम
उसकी जलाई उपलियों का धुआँ
गाँव पर चँदोवे-सा तन जाता है।

ठीक यहीं से शुरू होता है
हमारा सुलगना,
गाँव के अधिकांश चूल्हों पर
पानी पड़ जाता है
ठीक उसी समय

हमसे अपरिचय के बावजूद
हमारे हर परिवर्तन को
हमसे ज्यादा समझती है बुढ़ियाँ

गोबर पाथती बुढ़िया
एक आईना है जिसमें हमारा
हर अक्स बहुत साफ नज़र आता है

तुम कहीं भी हो, किसी भी वक्त
बस में, ट्रेन में
या अन्तरिक्ष शटल कोलम्बिया में
तुम कहीं भी
किसी भी ठौर
देख सकते हो उसमें अपनी शक्ल

वह एक सुविधा है
जो हमें उपलब्ध है
जीवित आदमी की गर्माहट है वह
हमारे वर्तमान की
सबसे मूल्यवान धरोहर

उससे मिलो
वह जार्ज आर्वेल नहीं है
वह बताएगी
इक्कीसवीं सदी में जीने का
सबसे सुघड़ सलीका।