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सरमाया दिन-भर का / संजय कुमार कुंदन
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एक धुन को सुना
और बेख़ुद हुआ
जिस्म के हर बुने-मू1
में बजती रही
एक बच्चे को देखा
ज़रा हँस दिया
उसके चेहरे से
टकरा के मेरी हँसी
उम्र के कितने सालों
से तनहा हुई
एक मासूमियत
गर्म, वहशी हवाओं
में घुल-सी गई
एक लड़की हँसी
खनखनाती हुई
शोख़, अल्हड़ हँसी
सख़्त दिल में कहीं कुछ
चटख-सा गया
चन्द बूँदें गिरीं
घास की सब्ज नोकें-सी
उगने लगीं
झुर्रियों से भरा
एक चेहरा दिखा
एक शफ़क़त2-भरा सायबां3
मिल गया
शाम लौटा हूँ घर
जेब ख़ाली लिये
फिर भी दामन भरा है
ये एहसास है
एक सरमाया4
दिन भर का हासिल है जो
मेरे जज़्बों की मेहनत
मेरे पास है
1.रोम, 2.स्नेह, 3.छत, 4.सम्पत्ति