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पहिल खण्‍ड / भाग 3 / बैजू मिश्र 'देहाती'

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वन्य प्रेदशक सभ नर नारि,
रहइछ जीवन सदिखन हारि।
कखन बनतके राक्षस ग्रास,
तेहन दैह ओ कटु संत्रास।
त्राहि त्राहि केर अछि बहुशोर,
देखि ककर नहि दृग बहनोर।
दस मुख केर भागिन मारीच,
करइछ पाप एतेक बनि नीच।
स्वयं प्रदेशक बनि सरदार,
निज राज्यक करइछ विस्तार।
एकरे सैन्यक कतिपय दैत्य,
करइछ एतेक पाप-मय कृत्य।
जम्बु द्वीप केर दक्षिण कात,
ततए राज्य लंका विख्यात।
निशिचर रावण तकर नरेश,
पाप कर्म मे निरत विशेष।
आर्यवर्त्तमे कए पैसार,
चाहि रहल राज्यक विस्तार।
शिविर बना ताड़क असुर, सिद्धाश्रमक समीप।
कहा रहल एहि क्षेत्र केर, राक्षस कुलक महीप।
एकरे सुत मारीच अछि, करइछ सतत प्रपंच।
अछि सुबाहु सहयोगमे, रहए ने कौखन संच।
बहुलास्वहु नहि कएल उपाए,
ऋषिगण कहल यदपि अकुलाए।
यद्यपि छथि सभ सीमा रक्षक,
किन्तु करथि सभ बात विपक्षक।
पाबि दनुज केर बहु उपहार,
सतत् हुनक प्रति रहथि उदार।
पन्द्रह निक हेतु श्रीराम,
चलथु संग सिद्धाश्रम धाम।
करथु राक्षसक वंश विनास,
तिमिर हटा पुनि करथु प्रकाश।
सुनितहि नृप उर उपजल ताप,
युद्ध निरत जनु टूटल चाप।
करितहुँ रामक सुखद विवाह,
रखितहुँ उर बिच अमित उछाह।
दनुज प्रचंड राम सुकुमार,
सहि सकता की ओकर प्रहार?