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पितृहीन ईश्वर : एक मेलोड्रामा / विजयदेव नारायण साही

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कथाकार


अंध शून्य को वेधित करता
एक क्षीण स्वर किसी बिगुल का
सूने जल में चमकीला मछली का सहसा
तैर गया।
मह महाशर की रात उठी थीं जब आत्माएँ।

डूबे मस्तक
ख़ाली आँखें
हारे चेहरे
घायल सीने
बोझिल बाँहें
उतरे कन्धे
घना अँधेरा
स्तब्ध प्रतीक्षा।

देवदूत


ओ आत्माओं,
ओ आत्माओं,
खंडित करता हूँ मैं अपने शुभ्र मंत्र वे
खंडित करता हूँ मैं वे संदेश पुरातन,
खंडित करता हूँ मैं अपनी पावन आस्था,
ओ आत्माओं,
देख लिया मैंने गिरि सागर,
जंगल, नदियाँ, व्योम, मरुस्थल,
पिता नहीं है,
पिता नहीं है
सचमुच कोई पिता नहीं है,
हम सब के सब सिर्फ़ अभागे, सिर्फ़ अभागे
क्योंकि हमारा पिता नहीं है।

नीले सागर तट पर जाकर
जिसके आगे राह नहीं है,
अपनी आस्तिक छाती का सब ज़ोर लगाकर
मैंने पूछा :
‘‘समय आ गया
राह देखती हैं आत्माएँ
पिता कहाँ हो ?’’
नहीं मिला कोई भी उत्तर,
पागल सागर
उसी तरह फूलता और फूटता रहा।
उत्तर के ध्रुव की सीमा पर
जिसके आगे अतल शून्य है
अपनी पावन छाती का सब ज़ोर लगाकर
मैंने पूछा,