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अस्मिता खो गई / राकेश खंडेलवाल

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रोशनी दायरों में पिघलने लगी
चाँदनी आयेगी, ये न निश्चित हुआ, दस्तकें तट पे दे धार हँसने लगी

टिमटिमाते हुए कुमकुमों से झरे
जुगनुओं के महज पंख टूटे हुए
फुनगियों के लटकते रहे शाख से
साये जो दोपहर के थे छूटे हुए
दलदली घास अँगड़ाई लेती रही
कोई आये उठाने उसे सेज से
आस के स्वप्न तैरा किये आँख की
झील में, बिम्ब से एंठ रूठे हुए

साँझ के केश बिखरे, घनी स्याहियाँ बूँद बन कर गगन से बरसने लगीं
रोशनी दायरों में पिघलने लगी

पत्र ने सरसराते हुए कुछ कहा,
जब इधर से गया एक झोंका मगन
गुलमोहर ने लुटाया उसे फूल पर
थी पिरोकर रखी ढेर उर में अगन
पारिजातों की कलियों ने आवाज़ दे
भेद अपना बताया है कचनार को
चाँदनी कैद फिर भी रही रात भर
चाँद से न उड़े बादलों के कफ़न

एक कंदील थी जो निशा के नयन में किरन बन गयी, फिर चमकने लगी
रोशनी दायरों में पिघलने लगी

बढ़ रहे मौन के शोर में खो गयी
गुनगुनाती हुई एक निस्तब्धता
पल सभी मोड़ पर दूर ठहरे रहे
ओढ़ कर एक मासूम सी व्यस्तता
रात की छिरछिरी ओढ़नी से गिरा
हर सितारा टँगा जो हुआ, टूट कर
अपनी पहचान को ढूँढती खो गई
राह में आ भटकती हुई अस्मिता

ओढ़ मायूसियों को उदासी घनी, आस पर बन मुलम्मा सँवरने लगी
रोशनी दायरों में पिघलने लगी