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गीत की चाहत / राकेश खंडेलवाल

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जब भी चाहा है मैंने लिखूँ गीत मैं
शिल्प मुखड़े हुए, अंतरे खो गये

मन की गहराइयों से उठी भावना
पर अधर की सतह तक नहीं आ सकी
कुनमुनाती हुई मेरी सुधियाँ रहीं
तल पर सरगमों की नहीं गा सकी
नैन की प्यालियों में उफ़नते रहे
स्वप्न संवरे नहीं एक पल के लिये
आग थी तेल था और बाती भी थी
पर नहीं जल सके रास्ते में दिये

द्वार जब खटखटाया मेरा भोर ने
थक के सारे के सारे पहर सो गये

भोज पत्रों पे लिक्खी कहानी थी जो
आई इतिहास से वे निकल सामने
मैथिली होके तत्पर प्रतीक्षित रही
ली न अग्नि-परीक्षा मगर राम ने
मुद्रिका ढूँढ पाई न शकुन्तला
और दुष्यन्त जलता अकेला रहा
प्रश्न हर युग में दमयंतियों ने किये
किन्तु उत्तर में कुछ न नलों ने कहा

साक्ष्यदर्शी समझते जिन्हें हम रहे
वे सभी गुम अंधेरों में हैं हो गये

पंचतन्त्री कथाओं में उलझे रहे
किन्तु जाने नहीं आज तक नीतियाँ
बंद पलकें किये अनुसरण कर रहे
जो बना कर गये पूर्वज रीतियाँ
नींव रखते रहे हैं कई बार, पर
कोई निर्माण पूरा नहीं कर सके
चाहतों के चषक रिक्त थे सामने
किन्तु इक बूँद भी हम नहीं भर सके

सावनी मेघ आये तो थे घिर मगर
बरसे बिन ही हवा में विलय हो गये

चाँदनी की गली में सितारे उगे
कोई पहचान अपनी नहीं पा सके
सरगमों की तराई में खिलते हुए
राग नूतन कोई स्वर नहीं गा सके
धूप की कामनायें किये जा रहे
छोड़ पाये घटाओं का साया नहीं
हम प्रतीक्षा बहारों की करते रहे
जिनको हमने कभी था बुलाया नहीं

राह की शून्यता देखते, सोचते
इस डगर के पथिक सब, कहाँ खो गये।