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पाँचम खण्‍ड / भाग 1 / बैजू मिश्र 'देहाती'

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जामवंत उत्तरमे बजला,
यदपि बनल छथि ई गम्भीर।
खाहे मुँह केहनो लगैत छनि,
पुलक भरल छनि हिनक शरीर।
सुनितहि ठठा ठठा कऽ हँसला,
हनुमतसँ नहि रोकल गेल।
सभ हँसला आनन्द मग्न भए,
जामवंत वच सत्ते भेल।
बिदा भेला तखन सभ मिलिकए,
आबि गेला पंपापुर धाम।
समाचार हनुमान सुनौलनि,
सुनलनि सुग्रीवक संग राम।
जुटा सैन्य बल रीछ बानरक,
बिदा भेला सभ लंका दीश।
जामंवत हनुमत सुग्रीबहँु,
अंगदादि नल नील कपीश।
आबि गेेला सभ रामलखन संग,
सिंधु तीर पर उठल सबाल।
पार करब नहि छोट प्रश्न अछि,?
सोचि सभक उर भेल बेहाल।
खबरि दसाननके भेलै, आबि गेल छथि राम।
कोटि कोटि छनि सैन्यबल, हैत अबस संग्राम।
मन्दोदरि दसमुखकें कहलनि,
रामचन्द्र सऽ करू ने बैर।
युद्ध कालमे हुनकर आंगाँ,
टिकल रहत नहि अहं केर पैर।
परब्रह्म छथि नर तन धयने,
दनुजके ओ करता संहार।
घुरा सियाकें वंश बचाबी,
उत्तम होयत सैह बिचार।
किन्तु दसानन डाँटि हटौलनि,
बाजल सुनब ने मूर्खक बात।
नारी सतत् मूर्ख कहबै छथि,
ओकर बातकें राखब कात।
माल्यवान मंत्री समझौलनि,
अहंकार जुनि करिऔ भूप।
ई अछि सर्वनासकेर कारण,
नीति शास्त्र केर वचन अनूप।
मुदा जखन क्षण अबइछ नासक,
नीक ने लगइछ नीतिक बात।
दूध पिआबए जे विषधरकें,
तकरे करए दंस अभिघात।
माल्यवानकें हटा दसानन,
मंत्रिगणक कयलक बैसार।
मूँह देखि मुंगबा सभ परसल,
अनुमोदल दसशीश बिचार।
मुदा विभीषण चुप नहि रहला,
बात कहल सभ नीति प्रसंग।
राम थिका ब्रह्माण्डक नायक,
दनुज नास हित धयलनि अंग।
हुनक संग नहि युद्ध उचित अछि,
युद्ध करत सभ दनुजक नास।
शरणागत भए हुनक दनुजपति,
बचा लीअ ई वंश विनास।
मुदा दसानन दम्भ परायण,
कहल विभीषणकें बहुबात।
नहि एतबहि उठि बीच सभामे,
मारल हुनका निर्भय लात।
कहल जाह तों शत्रुक दलमे,
सतत गबै छह ओकरे गीत।
राज्य छोड़ि तौं अखन निकलि जा,
जाए बनाबह ओकरे मीत।
भए अपमानित आइ विभीषण घरसँ चलला।
नीति कहक हित दसानन कोपके तर पड़ला।
कएल मंत्रिगण संग, पहुँचला रामा दलमे।
कहल कथा छल भरल व्यथा दसमुख गड़लमे।
देखि भेला संकित दलमे सभ, रावण भ्राता।
हैता ई घातक दलमे नहि हैता त्राता।
जाए कहल सुग्रीव रामकें बात सविस्तार।
दसमुख भ्राता विभीषणक सन्देह सुदुस्तर।
हँसि बजला श्रीराम शरणमे जे चलि आएल।
हमर धर्म नहि थीक जाए ओ पीठ घुराएल।
लाउ बजा अतिशीघ्र्र हुनक हम स्वागत करबनि।
हुनक कष्ट छनि जतबा से सभ निश्चय हरबनि।
रामक लगमे आबि विभीषण,
पओलनि हुनकर बहु सत्कार।
मेटा गेलनि सभ क्षोभ हृदय केर,
ग्रहण कएल सभटा साभार।
राम मंगौलनि सिन्धुक जलकें,
ताहीसँ कयलनि अभिशेष।
लंकाधीशक पद दए कएलनि,
सुखी विभीषणकें अवधेश।
भेला आनंदित बानर सेना,
शत्रुक संगहु लखि ब्यवहार।
धन्य धन्य सभ बाजए लगला,
राम थिका करूणा आगार।
बात आब छल लंका पहुँचब,
उठि बजला सौमित्र सकोप।
ओना बाट नहि देता सिंधु ई,
अग्निवाण सऽ करब निलोप।
राम कहल नहि एहन कथा हो,
पहिने विनय तखन किछु बात।
हम बैसै छी विनय करक हित,
अहूँ लोकनि नहि बैसू कात।
कयल विभीषण एकर समर्थन,
ती दिवस ई चलल प्रयोग।
किन्तु सिंधु नहि आँखि उठौलनि,
बाँचि रहल छल कोप कुयोग।
धनुष उठा जखनहि प्रभु उठला,
भागल अएला देब समुद्र।
क्षमा करिअ अपराध भेल अछि,
जानि दास तब अति सै छुद्र।
सेना सहित पार करबालै,
नल नीलक उत्तम उपयोग।
हुनक छूल पाथर नहि डूबत,
हमहुँ करब सभटा सहयोग।
आज्ञा पाबि रामके चलला,
सकल सैन्य गण बनबए सेतु।
जामवंत सुग्रीव पवनसुत,
सहयोगल ओहि सेेतुक हेतु।
लक्ष लक्ष सैन्यक सीभदल बल,
आनए लगला तोड़ि पहाड़।
पैघ छोट बुखहु लए अएला,
जंगल सबहक कयल उजाड़।
राम कहल हम करब स्थापना,
ओ हैता रामश्वर नाथ।
भव तरता जे दर्शन करता,
मोक्ष पाबि ओ हेता सनाथ।
बजा ऋषी मुुनि कएल स्थापना,
कहल शिवक सन अमर ने आनं
हिनका तजि हमरा जे चाहत,
सैह थिका जगमे अज्ञानं
कोटि-कोटि हाथकसहयोगें,
सेतु भेल सुन्दर तैयारं
राम लखन सेनाकेर संगहि,
भेला समुद्रक सहजहि पार।
लंका पहुँचि राम प्रभु कएलनि,
सेनापति सबहक बैसार।
आगाँ कोना रण होमय,
करै जाउ विस्तृत सुबिचार।
जापवंत उठि कल अंतमे,
पहिने जाए शान्ति प्रस्ताव।
मानि जाथि जौं रावण एकरा,
युद्ध टरै अछि हमर सुझाव।
ताहि हेतु अंगद सुयोग्या छथि,
छथि बलशाली बुद्धि निधान।
कृपा प्रभू केर रहबे करतनि,
नहि कोनो होयतनि व्यवधान।
राम सभ क्यो स्वीकारल,
गेला बालि सुत दसमुख द्वार।
द्वार पाल सभ भागि पड़ायल,
देखितहि हिनक भूधराकार।
लंका भेल भयातुर अतिसैं,
पुनि आयल बानर हनुमान।
लंका जरा सैन्य बहु मारल,
करै चहए नहि प्राणक दान।
पहुँचि गेला बिनु रोक-टोकके,
दसाननक छल जत दरबार।
सिंहासन पर छल दसकंधर,
मंत्रिगणक संग करैत बिचार।