भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहे / पृष्ठ ६ / कमलेश द्विवेदी

Kavita Kosh से
Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:04, 27 दिसम्बर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कमलेश द्विवेदी |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

51.
ना गुलाब सी गंध है ना वैसा मकरंद.
फिर कनेर क्यों कर उसकी तरह घमंड.

52.
यों तुलना मे सिंधु की दिखे लघुत्तम बिंदु.
मगर समाकर सिंधु में बिंदु बने खुद सिंधु.

53.
जब अपना विश्वास ही होगा यों कमजोर.
फिर होगी मजबूत क्यों सम्बन्धों की डोर.

54.
सबसे ज्यादा खास जो वो तोड़ेगा आस.
बोलो कैसे कर लिया तुमने यह विश्वास.
 
55.
जब भी कोई देखता केवल अपना लाभ.
टूटा करते हैं तभी लाभों वाले ख्वाब.

56.
लगीं एक-दो ठोकरें मगर बच गया काँच.
बार-बार मत कीजिये मजबूती की जाँच.

57.
देख रहा हूँ रास्ता कबसे तेरा यार.
ख्वाबों में फिर क्यों करूँ मैं तेरा दीदार.

58.
मीठे-मीठे बोल ही हरदम बोलें प्लीज़.
इस मीठे से ना कभी होती डाइबिटीज.

59.
"आता हूँ" कहकर गया मुझसे मेरा यार.
जनम-जनम से मैं रहा उसकी राह निहार.
 
60.
दसों दिशाओं मे दिखें रावण के दस शीश.
एक बाण से काट दो तुम इनको जगदीश.