कुछ नहीं होने की तरह / प्रदीप मिश्र
कुछ नहीं होने की तरह
हाड़ तोड़ मेहनत कर
जब पस्त हो लौटते घर
मिलतीं एकदम हँसती-बिहँसती
उतर जाती सारी थकान
परोसतीं गर्म-गर्म रोटियाँ
और चुटकी भर नमक
इस नमक के साथ
झरता उनका प्रेम भी
चुटकियों के बीच से
भोजन में भर जाता
छप्पन भोग का स्वाद
आँखों ही आँखों में
बता देतीं दिन भर का हाल
स्कूल की फीस
बच्चों का अपमान
कनस्तर के पेट की गुडग़ुड़ाहट
फिर भी भरपेट के बावजूद
मनुहार की रोटी ज़रूर परोसतीं
अड़ोस-पड़ोस की इतनी ख़बरें
होतीं उनके पास कि
अख़बार को उठाकर
रखना ही पड़ता एक तरफ़
लौटना ही पड़ता देश-दुनिया से
अपने एक कमरे के घर में
रात की भयावहता के खिलाफ़
वे जलती रहतीं लगातार
और हम उनकी आग चुराकर
मशाल बने फिरते
हम प्रेम भी अपनी पत्नियों से चुराते
और प्रेमिकाओं पर करते न्यौछावर
सबकुछ होते हुए भी
कुछ नही होने की तरह
वे उपस्थित रहतीं हमारे जीवन में
सबकुछ होने के तुनक में
हम अनुपस्थित रहते उनके जीवन से
जब जीवन की झँझावातों से
उखड़कर गिरते
तो हमारे सिर के नीचे
उनकी वही गोद होती
जहाँ से उठकर
जीवन की तरफ़
निकलते हैं बच्चे।