इस ज़गह का पता / प्रदीप मिश्र
इस ज़गह का पता
यहाँ से
हर राह गुज़रात की तरफ़ जा रही है
कभी यहीं से सारी राहें मेरठ गयीं थीं
कभी अयोध्या
तो कभी अलीगढ़ और मुरादाबाद
हर ज़गह जातीं हैं
यहाँ से राहें
कोई भी राह घर नहीं जाती
यहाँ से
दिखाई देतीं हैं विशाल रथयात्राएं
दिखाई देते हैं लोगों से ख़चाख़च भरे मैदान
दिखाई देते हैं ज्वालामुखियों पर बसे नगर और महानगर
यहाँ से
सबकुछ दिखाई देता है साफ़-साफ़
नहीं दिखता है तो सिर्फ अपना घर
यहाँ पर एक क़ब्रगाह है
जिसकी सारी क़ब्रें खुदी हुयी हैं
और हड्डियों को हवा बिखेर रही है इधर-उधर
यहाँ पर देश के चुने हुए
विद्वानों, राजनीतिज्ञों और समाजसेवकों के
बड़े-बड़े अखाड़े हैं
यहाँ पर राजा का दरबार है
जिसमें देश की किस्मत का फ़ैसला होता है
पिछले फ़ैसले में गुजरात को मौत की सजा सुनाई गयी थी
इसबार किसी प्रदेश की बारी है या मुक़म्मल देश की
आँक रहे हैं पत्रकार
सबको पता है इस ज़गह का पता
फिर भी इस पते पर कोई भी नहीं लिखता
एक लम्बी चिट्ठी कि
अब बस भी करो
हमें अपने घरों में चैन से रहने दो
टहलने दो चाँदनी रात में बेखौफ़।