भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फिर तानकर सोएगा / प्रदीप मिश्र
Kavita Kosh से
Pradeepmishra (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:11, 2 जनवरी 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रदीप मिश्र |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> ''...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
फिर तानकर सोएगा
खटर .... पट .... खटर .... पट
गूँज रही है पूरे गाँव में
गाँव सो रहा है
जुलाहा बुन रहा है
जुलाहा शताब्दियों से बुन रहा है
एक दिन तैयार कर देगा
गाँव भर के लिए कपड़ा
फिर तानकर सोएगा
जिस तरह चाँद सोता है
भोर होने के बाद ।