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भीतर का ठहराव / मनोज चौहान

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मैं पाता हूँ कभी – कभार
एक ठहराव अपने भीतर
कर देना चाहता हूँ कलमबध
अनेक पीड़ाओं को
और साथ ही
अकस्मात उभर आये
अपरिभाषित खालीपन को l

कलम को कागज पर टिका कर
देना चाहता हूँ मूर्त रूप शब्दों का
मगर सियाचिन के ग्लेशियरों की मानिंद
शून्य हो जाता है जैसे तापमान भीतर का l

शब्द चाहते हैं आकार पाना
मगर जम जाते हैं जैसे
जहन में ही कहीं
कड़कड़ाती ठण्ड के
कोहरे की तरह l

भीतर का यह जमघट
बढ़ने लगता है जब कभी
ठोस रूप लेकर
तो महसूस करता हूँ
एक भारीपन अंदर तक
चाहता हूँ कि
यह गतिशील और प्रवाहमान रहे
सदैव ही l

ये ठहराव कष्टकारक है
बहना पर्याय है जीवन का
भीतर की सरिता का बहाव ही
तय करेगा
नए रास्ते
नए आयाम
और नई मंजिलें ...!