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ख़्वाब जो भी बुना वो बुना रह गया / गौतम राजरिशी

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ख़्वाब जो भी बुना, वो बुना रह गया
उम्र बीती मगर बचपना रह गया
 
अक्स जितने थे सारे बदलते रहे
आईना तो वही आईना रह गया
 
देखकर बादलों का उमड़ता हुजूम
लब पे सूरज के कुछ गुनगुना रह गया
 
तू मिला तो मुझे ये अचानक लगा
कैसे अब तक मैं तेरे बिना रह गया
 
हाशिये पड़ खड़े हम भला क्या कहें
जब भी जो भी कहा, अनसुना रह गया
 
धूप बढ़ती गयी, भीड़ छँटती गयी
चौक पर चीख़ता सरगना रह गया
 
'रात'दरवाजे से खिलखिला कर गयी
और चौखट पे 'दिन' अनमना रह गया
 
आग दोनों तरफ थी बराबर लगी
वो जला रह गया, मैं भुना रह गया





(लफ़्ज़ सितम्बर-नवम्बर 2011, अनन्तिम जनवरी-मार्च 2013)