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कहने को कह तो दूँ कि मुहब्बत नहीं मुझे / गौतम राजरिशी

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कहने को कह तो दूँ कि मुहब्बत नहीं मुझे
पर झूठ बोलने की भी आदत नहीं मुझे

कुछ इस तरह से ढ़ल गया हूँ संग वक़्त के
अब तू नहीं तो ऐसी भी दिक़्क़त नहीं मुझे

फ़ुरसत मिले अगर तेरी यादों से इक ज़रा
फिर तो कहूँ कि ‘हाय रे फ़ुरसत नहीं मुझे’

वो इश्क़ था तुम्हारा कि मैं उठ खड़ा हुआ
करनी थी, सच कहूँ तो बगावत नहीं मुझे

तेरा ख़याल, ज़िक्र तेरा, तेरे ख़्वाब, बस !
वैसे किसी नशे की कोई लत नहीं मुझे

छुप-छुप के देखते हो मुझे छत से रोज़ तुम
फिर ऐंठ कर ये कहते हो उल्फ़त नहीं मुझे ?

यूँ ज़िन्दगी ने देने को सब कुछ दिया, मगर
कैसे कहूँ कि तेरी ज़रूरत नहीं मुझे